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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4120
आईएसबीएन :000000

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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की क्या आवश्यकता है

तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें


गुरुदीक्षा का दान-गुरु दक्षिणा है। कलमी आम में एक टहनी बाहर से काटकर लगाई चिपकाई जाती है। जिस पेड़ में चिपकाते हैं वह उस टहनी को अपना रस देना आरम्भ कर देते हैं। दोनों जुड़ जाते हैं तो कलमी आम बनता है, उस पर मोटे, बड़े, जल्दी और कीमती फल आते हैं। टहनी लगाना गुरु-दीक्षा है और रस देना गुरुदक्षिणा। दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। एक पक्ष शिथिल पड़ेगा, तो दूसरे का श्रम व्यर्थ चला जायेगा।

गुरु को अपना तप, पुण्य और प्राण शिष्य को हस्तान्तरित करना पड़ता है। शिष्य को अपनी श्रद्धा, विश्वास, समयदान-अंशदान सत्यप्रयोजनों के लिए प्रस्तुत करना होता है।

पूज्य गुरुदेव को उनके महा-गुरुदेव ने जो अजस्त्र अनुदान दिया है, उस पूँजी को पूज्य गुरुदेव ने भी उन्हीं शर्तों पर हस्तान्तरित किया है, जिस पर कि उन्हें मिला है।

पूज्य गुरुदेव एक महान् मिशन का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे व्यक्ति नहीं एक मिशन हैं। उनकी न तो निजी माँग रही है, न आवश्यकता। अनुदान का प्रतिदान उनके मिशन के निमित समयदान-अंशदान के रूप में ही नियमित रूप से करना होता है। ताली दोनों हाथों से बजती है, गाड़ी दो पहियों पर चलती है। अंधे और पंगु ने मिल-जुल कर नदी पार की थी। गुरु और शिष्य को अपने-अपने उत्तरदायित्व निभाने होते हैं। जो पीछे हटता है, वह घाटे में रहता है।



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    अनुक्रम

  1. श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
  2. समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
  3. इष्टदेव का निर्धारण
  4. दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
  5. देने की क्षमता और लेने की पात्रता
  6. तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
  7. गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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